Saturday, June 22, 2013

Street Play

कोशिशों  की  धरा  पर  चलना  था  हमें
लक्ष्य  ऊँचा  कर  बढ़ना  था  हमें
रुक  गये  डर   कर  या  सहम  कर
राह   के  कांटें  कहीं  चुभ  न  जाये  हमें।

अंधेरों  में  छुपकर  बैठ  गए  हम
ऊँचाइयों  को  देखकर  रुक  गये  हम
न  हो  पायेगा  हमसे,  क्या  बढ़ें  आगे
यह  सोचकर  मायूस  हो  गए  हम।

गर  आगे  बढ़ते,  उम्मीद  तो  दिखती
रुक  रुक  कर  ही  सही,  मंज़िल  तो  मिलती
डगमगाकर  ही  तो  सम्हालना  सीखते
दुखों  के  बाद  ख़ुशी  की  अनुभूति  होती। 
शौर्यविका 

पथिक हूँ इस राह का
बस चलते जाना है मुझे
मायूस खड़ा मैं रो नहीं सकता
अपनी मंजिल को आखिर पाना है मुझे।

थककर  विश्राम मैं करूँगा यदि
अँधेरी काया मुझे नोंच डालेगी यहीं
नींद के आगोश में खो जाऊंगा अगर
सपनों की दुनिया से फिर निकल पाउँगा नहीं।

बोलकर चला हूँ उसे पाकर ही लौटूंगा
साँस भी टूटे, तब भी न रुकुंगा
 इस डगमगाती रह पर मदमस्त मैं चला
इन रेशमी परछाइयों में मैं न भात्कुंगा।

दूर से आया हूँ अभी दूर जाना है
पाने की ललक में देखता हूँ तुझे
गिर कर उठ कर चलता जा रहा हूँ मैं
मेरी मंज़िल की रौशनी पथ दिखा रही है मुझे। 

Thursday, September 20, 2012

दीवारें बोलती हैं 

दब  गयी है वो हंसी 
जो  कभी आँगन में बिखरा करती थी 
टूट गयी है वो पायल जो कभी 
पैरों में सजा करती थी,
सहम कर सिहर कर 
दबी हुई पर मधुर वो आवाज़ 
कह रही हमसे, ज़रा गौर से सुनो 
दीवारें बोलती हैं।

हैवानियत निगलती गयी मुझे 
पर मैं  कुछ कर न सकी 
मांगती रही अपनी आत्मा की भीख 
पर दरिंदों से वो मिल न सकी 
मर्यादा की चुनरी में 
इज्ज़त से जीने का सपना देखा 
मेरी पुकार गूंज रही ज़रा गौर से सुनो 
दीवारें बोलती हैं।

छिपी हैं कई चीखें 
साथ में वो यादें 
बाबा की बिटिया डरी  हुई
कह रही है ये बातें 
क्या कसूर है मेरा 
किस गलती पर किया मुझे बेगाना 
मेरा दर्द चिल्ला रहा, ज़रा गौर से सुनो 
दीवारें बोलती हैं। 
   

Wednesday, June 6, 2012

वो बचपन की यादें

वो बचपन की यादें
वो बचपन की बातें
भूले से न भूलेंगी
वो दिन वो रातें।
छोटी-छोटी बातों में खुशियाँ छलकती थी
अम्मा के आँचल में ज़िन्दगी बसती थी
कभी बहला कर तो कभी फुसला कर
अँधेरी छाया में भी रौशनी चमकती थी।

चंदा को मामा तो बिल्ली को मौसी कहना
अनजानों को हंस कर अपना बनाना
ईर्ष्या न द्वेष न पाप की महक थी
बचपन का दिन भी था कितना सुहाना।
रोते हुए भी हंस देते थे
गिर कर भी उठ जाते थे
एक पल में बाबा को देख
स्वर्ग की असीम खुशियाँ पा लेते थे

था वो बचपन अपना
बन गया एक किस्सा पुराना
भूले से न भूलेंगे
वो समय वो ज़माना।
 बेटियां पैदा  होते ही अपने छोटे नाज़ुक कान्हों पर समाज के द्वारा बनाये गए अनगिनत बोझ को उठा लेती हैं। जैसे-जैसे समझदारी बढती जाती है, उनको इन बोझों के विभिन्न नाम बताये जाते हैं। उन्हें खुद अपनी मर्यादाएं समझ में आने लगती हैं। उनको भले ही कहा जाये की वो स्वतंत्र हैं, परन्तु बंदिशों का एहसास करवाया जाता है। मैं यह नहीं कहती की सब उनके बुरे के लिए किया जाता है, बेशक इसमें उनकी भलाई भी छुपी होती है। परन्तु एक बेटी के  इस बात का दर बैठ जाता है कि  कहीं उससे कोई गलती न हो जाये।
यदि बेटा किसी लड़की से बात करे तो चलता है, पर बेटी किसी लड़के से बात करे तो खलता है। बेटा गलती से कुछ गलत बोल दे तो, अभी बच्चा है सिख जायेगा धीरे धीरे। पर बेटी से ऐसी गलती हो जाये तो उसे शब्दों की सीमायें याद दिला दी जाती हैं।
एक बेटी के साथ घर का सम्मान, प्रतिष्ठा, इज्ज़त और न जाने क्या क्या जुदा होता है। इसमें कुछ गलत नहीं, बल्कि यह बेटे के भी साथ जुड़ा होता है पर शायद  बेटियों के मामले में इनका वज़न कुछ ज्यादा ही होता  है।
बेटियों को हर  एक  यह  कर उठाना  पड़ता है की कहीं समाज के उसूल न टूट जाये। बोला जाता है कि गलती से ही इंसान सीखता है, पर बेटियों को तो गलती करने की इजाज़त ही नहीं। उन्हें तो हर चीज़ में भगवान् के घर से पी एच डी किया हुआ समझा जाता है।
क्या वे इंसान नहीं? क्या उन्हें अपनी गलतियों से सीख पाकर आगे बढ़ने का हक़ नहीं? क्यूँ उन्हें बार-बार याद दिलाया जाता है की वे लड़की हैं? इतने सरे बोझ और बंदिशों के साथ वे इस पापी दुनियां में पैदा होती हैं और उन्हें कहा जाता है कि  वे स्वतंत्र हैं। बेटियों को तो बेफिक्र साँस लेने की भी इजाज़त नहीं।
अपने नाज़ुक कन्धों पर इस ढोंगी समाज के वज़न को उठा कर वे जीती हैं और उन्हीं बेटियों को आज बोझ समझा जाता है। उनकी ही जन्म से पहले हत्या कर दी जाती है।
शय ये समाज डरता है कि पता नहीं पिया होने वाली बेटी में हमारे द्वारा रचे पाखंड में जीनें की क्षमता है कि  नहीं। हमारे द्वारा पैदा किये गए काँटों में वो अपने नाज़ुक पैरों से कहाँ चल पायेगी। हर कदम पर तो हमने उसके लिए परीक्षा राखी है, कभी न कभी तो फेल होगी ही और तब हम उसे ताने मरेंगे। इतनी कठिन डगर में बेटियां कहाँ चल पाएंगी, चलो पैदा होने से पहले ही उसे मार देते हैं।
पर शायद ये समाज भूल चूका है की बेटियों का जन्म नहीं अवतार होता है। उसकी प्यारी सी एक मुस्कान हजारों अंगारों की भड़की आग भी बुझा देती है। अपने नाज़ुक कन्धों पर समाज के भरी से भरी वज़न को फूल की भांति उठा कर अपनी पायल की आवाज़ पर माकन को घर बना देती है। वो कमज़ोर दिखती है परन्तु उसके जैसी ताकत दुनिया के किसी पुरुष में नहीं।
यह समाज पुरुषत्व की बात करता है, जिस दिन इसने नारित्वा का अर्थ समझ लिया उस दिन इस अर्थहीन समाज का अर्थ निकल आएगा।
इस समाज से एक बेटी का आग्रह है कि अपने पाखंड को त्याग दीजिये। इस आडम्बर में इश्वर की रची सबसे खुबसूरत रचना 'बेटियां' कुचली जा रही हैं। अपने मापदंडों को बदलिए। सिर्फ बेटे-बेटियों को समान कह देने से कुछ नहीं होगा। अपने अंतर्मन से जब तक आप यह नहीं स्वीकारेंगे तब तक ये बेटियां ऐसे ही अथाह पीड़ा के साथ मुस्कुरायेंगी, परन्तु मन ही मन उनके आंसू बहते रहेंगे।

Monday, June 4, 2012

       मैं   तरसी मैं रोई       

       मैं तरसी मैं रोई मैं भटकी हर जगह 
       बिखरे हुए सपनों को समेटा हर सुबह 
                देखा था ख्वाब उन उचाईयों को पाने का 
                किया था हर  हिसाब  अपनी गलती छुपाने का 
       भूली न थी मैं किसी के भी प्यार को 
       की थी पूरी कोशिश तोड़ी थी हर दिवार को 
                बाधाओं से डरी न थी, राह पर अडी थी मैं 
                पत्थरों की चोट को, फूलों सा समझी थी मैं,
       क्योंकि मन में था एक विश्वास 
       कि वो इश्वर है मेरे पास,
               मैं सोच ये कभी न पाई,
               क्या कभी छोड़ेगा वो मेरी कलाई,
       पर साथ था उसका सिर्फ चार दिन का
       उड़ाया सपनों को मेरे बिखेरा जैसे तिनका,
               मैं डरी सी, सहमी सी, भटकी उस रात को,
               ढूढा मैंने बहुत, पर पाया न तेरे हाथ को,
       किस आधार पर और क्यूँ करूँ मैं तेरी वंदना 
       क्यूँ छीना तुने मुझसे मेरे सपनों का वो पलना,
               मैं हूँ जीवित अपने बड़ों के आशीर्वाद से 
               और प्रखर हो जाउंगी, मैं अब हर एक विषद से 
       मेरे लिए तेरा अब न कोई अर्थ है,
       तेरे भरोसे पर तो मेरी ज़िन्दगी अनर्थ है,
               करुँगी अब मैं अपनी सारी कठिनाइयों का अंत 
               परिश्रम के अमृत से करुँगी सारे सपनों को जीवंत।

Saturday, April 3, 2010

गणतंत्र दिवस

26 जनवरी गणतंत्र भारत को दिखा रही,
गाँधी और वीर भगत की याद दिला रही।

देश का हर एक व्यक्ति न चूकेगा इसे मनाने से,
न भूलेगा अपने भारत की गाथाओं को गाने से।

वेदना और पीड़ा को हर व्यक्ति भूल जायेगा,
अपनी कल्पनाओं के रंगों से भारत को जब सजाएगा।

पर क्या आज भी उस भारत का स्वरूप जीवित है,
जब बच्चा रोटी, कपडे और मकान के लिए पीड़ित है।

वेद, पुराण और गीता की शान मिटी जा रही,
दो नंबर की मैना जब इनके श्लोकों पर नाच रही।

ईमानदारी बिक रही, लोगों की पानी- सी,
सच्चाई तो लगती है कोई सुनी बात पुरानी सी।

अधिकारी आज टेबल के नीचे स्वर्ग बनाया करते हैं,
रिश्वतखोरी और बेईमानी का पाठ पढाया करते हैं।

आज अंग्रेज भारत को देख मन ही मन हँसते हैं,
छोड़कर चले जाने की खुशियाँ मनाया करते हैं।

ज़रुरत है हममें से कुछ सच्चे लोगों की,
जो नाक में कर दे दम अन्यायी लोगों की।

कर प्रतिज्ञा आज हमें अरुण भारत में लाना है,
हर अनैतिक विचार को जड़ से हमें मिटाना है।

हमारे भविष्य का भारत सुखी तभी बन पायेगा,
जब इसके ह्रदय में नैतिक दीप जगमगाएगा।