कोशिशों की धरा पर चलना था हमें
लक्ष्य ऊँचा कर बढ़ना था हमें
रुक गये डर कर या सहम कर
राह के कांटें कहीं चुभ न जाये हमें।
अंधेरों में छुपकर बैठ गए हम
ऊँचाइयों को देखकर रुक गये हम
न हो पायेगा हमसे, क्या बढ़ें आगे
यह सोचकर मायूस हो गए हम।
गर आगे बढ़ते, उम्मीद तो दिखती
रुक रुक कर ही सही, मंज़िल तो मिलती
डगमगाकर ही तो सम्हालना सीखते
दुखों के बाद ख़ुशी की अनुभूति होती।