Wednesday, June 6, 2012

 बेटियां पैदा  होते ही अपने छोटे नाज़ुक कान्हों पर समाज के द्वारा बनाये गए अनगिनत बोझ को उठा लेती हैं। जैसे-जैसे समझदारी बढती जाती है, उनको इन बोझों के विभिन्न नाम बताये जाते हैं। उन्हें खुद अपनी मर्यादाएं समझ में आने लगती हैं। उनको भले ही कहा जाये की वो स्वतंत्र हैं, परन्तु बंदिशों का एहसास करवाया जाता है। मैं यह नहीं कहती की सब उनके बुरे के लिए किया जाता है, बेशक इसमें उनकी भलाई भी छुपी होती है। परन्तु एक बेटी के  इस बात का दर बैठ जाता है कि  कहीं उससे कोई गलती न हो जाये।
यदि बेटा किसी लड़की से बात करे तो चलता है, पर बेटी किसी लड़के से बात करे तो खलता है। बेटा गलती से कुछ गलत बोल दे तो, अभी बच्चा है सिख जायेगा धीरे धीरे। पर बेटी से ऐसी गलती हो जाये तो उसे शब्दों की सीमायें याद दिला दी जाती हैं।
एक बेटी के साथ घर का सम्मान, प्रतिष्ठा, इज्ज़त और न जाने क्या क्या जुदा होता है। इसमें कुछ गलत नहीं, बल्कि यह बेटे के भी साथ जुड़ा होता है पर शायद  बेटियों के मामले में इनका वज़न कुछ ज्यादा ही होता  है।
बेटियों को हर  एक  यह  कर उठाना  पड़ता है की कहीं समाज के उसूल न टूट जाये। बोला जाता है कि गलती से ही इंसान सीखता है, पर बेटियों को तो गलती करने की इजाज़त ही नहीं। उन्हें तो हर चीज़ में भगवान् के घर से पी एच डी किया हुआ समझा जाता है।
क्या वे इंसान नहीं? क्या उन्हें अपनी गलतियों से सीख पाकर आगे बढ़ने का हक़ नहीं? क्यूँ उन्हें बार-बार याद दिलाया जाता है की वे लड़की हैं? इतने सरे बोझ और बंदिशों के साथ वे इस पापी दुनियां में पैदा होती हैं और उन्हें कहा जाता है कि  वे स्वतंत्र हैं। बेटियों को तो बेफिक्र साँस लेने की भी इजाज़त नहीं।
अपने नाज़ुक कन्धों पर इस ढोंगी समाज के वज़न को उठा कर वे जीती हैं और उन्हीं बेटियों को आज बोझ समझा जाता है। उनकी ही जन्म से पहले हत्या कर दी जाती है।
शय ये समाज डरता है कि पता नहीं पिया होने वाली बेटी में हमारे द्वारा रचे पाखंड में जीनें की क्षमता है कि  नहीं। हमारे द्वारा पैदा किये गए काँटों में वो अपने नाज़ुक पैरों से कहाँ चल पायेगी। हर कदम पर तो हमने उसके लिए परीक्षा राखी है, कभी न कभी तो फेल होगी ही और तब हम उसे ताने मरेंगे। इतनी कठिन डगर में बेटियां कहाँ चल पाएंगी, चलो पैदा होने से पहले ही उसे मार देते हैं।
पर शायद ये समाज भूल चूका है की बेटियों का जन्म नहीं अवतार होता है। उसकी प्यारी सी एक मुस्कान हजारों अंगारों की भड़की आग भी बुझा देती है। अपने नाज़ुक कन्धों पर समाज के भरी से भरी वज़न को फूल की भांति उठा कर अपनी पायल की आवाज़ पर माकन को घर बना देती है। वो कमज़ोर दिखती है परन्तु उसके जैसी ताकत दुनिया के किसी पुरुष में नहीं।
यह समाज पुरुषत्व की बात करता है, जिस दिन इसने नारित्वा का अर्थ समझ लिया उस दिन इस अर्थहीन समाज का अर्थ निकल आएगा।
इस समाज से एक बेटी का आग्रह है कि अपने पाखंड को त्याग दीजिये। इस आडम्बर में इश्वर की रची सबसे खुबसूरत रचना 'बेटियां' कुचली जा रही हैं। अपने मापदंडों को बदलिए। सिर्फ बेटे-बेटियों को समान कह देने से कुछ नहीं होगा। अपने अंतर्मन से जब तक आप यह नहीं स्वीकारेंगे तब तक ये बेटियां ऐसे ही अथाह पीड़ा के साथ मुस्कुरायेंगी, परन्तु मन ही मन उनके आंसू बहते रहेंगे।

2 comments:

  1. Iss brahmand ki rachna mai pratyek jeev ka apna ek vishesh sthan hai lekin adhyatm kahta hai ki kisi jeev bhav vishesh ke prati aasakt nahi hona chahiye kyon ki koi bhi apne dukh ka karan svyam hota hai. Apka lekhan acha hai lekin abhi aur knowledge ki demand karta hai.

    Aap aur acha likhen meri subhkamnayain aap ke sath hai

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  2. thank you so much....
    apki baat sahi hai ki pratyek jeev ka apna mahatwa hai, isliye sabka samman ek saman hi honna chahiye. mera lekh vyakti vishesh ke prati asakti me nahi likha gaya hai apitu yah samaj ke us samooh ke liye hai jise vibhinna roopon me asamanta ka aaj bhi samna karna pad raha hai.

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