Thursday, September 20, 2012

दीवारें बोलती हैं 

दब  गयी है वो हंसी 
जो  कभी आँगन में बिखरा करती थी 
टूट गयी है वो पायल जो कभी 
पैरों में सजा करती थी,
सहम कर सिहर कर 
दबी हुई पर मधुर वो आवाज़ 
कह रही हमसे, ज़रा गौर से सुनो 
दीवारें बोलती हैं।

हैवानियत निगलती गयी मुझे 
पर मैं  कुछ कर न सकी 
मांगती रही अपनी आत्मा की भीख 
पर दरिंदों से वो मिल न सकी 
मर्यादा की चुनरी में 
इज्ज़त से जीने का सपना देखा 
मेरी पुकार गूंज रही ज़रा गौर से सुनो 
दीवारें बोलती हैं।

छिपी हैं कई चीखें 
साथ में वो यादें 
बाबा की बिटिया डरी  हुई
कह रही है ये बातें 
क्या कसूर है मेरा 
किस गलती पर किया मुझे बेगाना 
मेरा दर्द चिल्ला रहा, ज़रा गौर से सुनो 
दीवारें बोलती हैं। 
   

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